रविवार, 13 दिसंबर 2015

गुनहगार हम नहीँ



माना कि तुम हमारे तलबगार अब नहीँ
कैसे कहोगे तुम कि मेरा प्यार अब नहीँ

               हम न  बनेंगे राह की दीवार कभी भी
               दिल को जलाके ख़ाक बनायेंगे हम यहीं

अपनी वफ़ा के  लहू से सींचा है गुलिस्तां
लेकिन  उसकी बहार के हकदार हम नहीँ

            खायें है धोखे हमने वफ़ा के नाम पर
           लेकिन कहेंगे फिर भी गुनहगार हम नहीँ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें