शनिवार, 4 जून 2016

रात की तन्हाई

तुमने कभी रात की तन्हाई का दर्द बांटा है
कभी उसकी स्याह खामोशी से बातें की है

मैने देखे है उसके सीने के जख्म
उसकी आहों से उठता हुआ धुँआ

सुनी है उसकी सिसकियाँ तल्खियाँ और तड़प
उसकी आँखों का गम बूँद बनके रिसता है

उसके सीने की आंच में तपकर
नित नया  चाँद भी पिघलता है
@मीना गुलियानी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें