गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

समसामयिक रचना

बैंकों के बाहर कतारों के नज़ारे बोल रहे हैं 

आज तो नदिया के भी धारे बोल रहे हैं 

 ज़लज़ला आया जिंदगी में महल डोल रहे हैं 

गरीबों को तो रोज़ का ही राशन जुटाना था 

अमीरोँ के तहख़ाने सारे राज़ खोल रहे हैं 

गरीब तो चुपचाप आधे पेट खाके सोते हैं 

जिनके पास ख़ज़ाने हैं सिंहासन डोल रहे हैं 

चर्चा है जग में धुआंदार हो रही जयजयकार 

जाने जनता किसे नेता चुने पहनाये वो हार 

कब ले करवट ऊँट  जाने कब क्या हो जाए 

अभी तो यह समरांगन है कौन वोट ले जाए 
@मीना गुलियानी 

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