मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

सपने हैं सपने

आसमां को तो सभी देखते हैं 

 ये किसी को भी मिलता नहीँ 

कभी ज़मी भी सितम ढाती है 

पैदावार भी यही बढ़ाती है 

यहीँ पर जन्म लेते हैं सभी 

मरके दफन भी होते यहीँ 

मिट्टी से मिट्टी का सफर 

ये ज़मी ही तो कराती है 

आदमी आकाश छूना चाहता है 

धूल पैरों से लिपट जाती है 

रास्ता रोकती हर ख्वाहिश का 

बड़े आशियां सपनों के सजाती है 

ये आसमां  रहता सदा  अछूता ही 

वक्त के आगे न किसी की चली 

कितनो  ने घुटने टेके हारे महाबली 

जाने  क्यों इन्सान नहीँ समझता 

क्यों ऊँचे ख़्वाब देखता रहता है 

जिनका टूटना ही यकीनी हो 

ऐसे सपने वो क्यों बुनता है 
@मीना गुलियानी 


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