रविवार, 18 दिसंबर 2016

सभी अपने हैं कोई नहीँ पराया है

मुझे ज़माने में इस शोहरत की चाह नहीँ है

चाहती हूँ कि तुम मुझे पहचान लो

जो जैसा होता है वैसा ही अक्स ढूँढता है

पर मुझे अपनी औकात का पता है

यह मिट्टी ही अब मेरी पहचान है

ज़िन्दगी यूँ ही गुज़रती जा रही है

हार जीत के दोनों मुकाम तय करने हैं

सागर की गहराई से जीना सीखा है

जो चुपचाप अपनी मौज में जीता है

मुझे फरेब से सख्त नफरत है

वक्त के साथ रंग ढंग बदलते हैं

बचपन के सुहाने पल खो गए हैं

पहले हँसते कूदते इठलाते रहते थे

अब मुस्कुराते भी बहुत कम ही हैं

रिश्तों को निभाने में खुद को खो दिया

मेरी जिंदगी ने यही फलसफा सिखाया है

 जहाँ में सभी अपने हैं कोई नहीँ पराया है
@मीना गुलियानी 

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