रविवार, 29 अक्टूबर 2017

सहस्रार निर्झर अन्तर

चन्द्रकिरण की ज्योत्स्ना से प्रकाशित है तन
प्रफुल्लित हुआ है देखो मेरे मन का भी उपवन

नभ के तारे चमक चमक कर मन को लुभाएं
अपनी रश्मि कणों  से चहुँ ओर प्रकाश फैलाएँ

बाल सुलभ हुआ आज मेरा प्रमुदित मन
वीणा सी झंकृत हुई तरंगित ये धड़कन

 कोई जैसे बुला रहा हो सोया भाग्य जगा रहा हो
त्वरित गति से कांपी धरती करने लगे पग नर्तन

नीला अंबर लगा झूमने बादल भी हर्षाने लगे
मन मयूरा नाच उठा गीत ख़ुशी के गाने लगे

भरा रोम रोम में अनुराग प्राणों का संचार हुआ
बरसों से प्यासी धरा में मधुमय मनुहार हुआ

अंतर्मन में गूँजे निनाद सुर अनहद बजे निरंतर
बरसी अमृत की धारा भी सहस्रार निर्झर अन्तर
@मीना गुलियानी



4 टिप्‍पणियां:

  1. अनुपम माधुर्य का रसानंद कराती सुन्दर रचना. बधाई एवं शुभकामनायें .

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  2. सुंदर रचना ... प्राकृति और प्रेम का संयोजन ...

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  3. hey arjun,sury mein jo prkash hai,jisse vh duniya ko prkashit krta hai,usey mera prkash hi smjh.isitrh chndrma aur agni mein bhi mera hi tej prkaash hai-gita-shri krishn

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