बुधवार, 6 दिसंबर 2017

समीकरण में उलझा रहता है

जिंदगी की समस्या क्या कभी खत्म होगी
समुद्र की लहरों सी मचलती रहती हैं
इनका क्षेत्र कितना विस्तृत है
अनवरत सी चलती रहती हैं
कभी कभी तो ज्वारभाटा
और कभी ज्वालामुखी बन
नागिन सी फुँफकारती हैं
कभी गर्मी की तपिश तो
कभी सर्दी का तीक्ष्ण रूप लेती हैं
जीवन अस्त व्यस्त कर  देती है
कोई बेघर, बेचारा, भूख का मारा
सड़कों के फुटपाथ पर ठिठुरता है
अलाव जलाकर सर्दी कम करता है
बिना वस्त्रों के रात गुज़ारता है
तो कभी भूखे पेट सोता है
उनकी हालत बहुत खस्ता होती है
जिसे देखो समस्याग्रस्त नज़र आता है
क्या समस्या से बचने का कोई रास्ता है
मेरा मन इसी समीकरण में उलझा रहता है
@मीना गुलियानी

4 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग पर 'गुरुवार ' ०४ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/


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  2. बेहतरीन रचना ! बहुत खूब आदरणीय ।

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  3. इस कशमकश में उलझे मन को व्यापक समीकरण की तलाश है जो दोनों ओर संतुलन ला दे.
    सुन्दर रचना.
    बधाई एवं शुभकामनायें.

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