रविवार, 31 मई 2020

बदलते ठिकाने -कहानी

आपने अक्सर सड़कों पर खासतौर पर रैड लाइट होने पर कुछ बच्चों को हाथ में अगरबतियाँ , खिलौने ,गुब्बारे लेकर कार के आस पास या यूँ ही पैदल चलने वालों के पास भी जाते हैं।   मुझे उनको देखकर इस बात पर ख़ुशी होती है कि ये लोग कम से कम भीख तो नहीं मांग रहे हैं।  वो आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं।  तभी तो वो लोग  सामान बेचकर पैसे कमाते हैं।  शायद कुछ स्वयं सेवी संस्थाएँ ऐसे लोगोँ से जुड़ी हैं।  एक बच्चे जिसका नाम रामू था वो ऐसे ही जब कार रोकी थी तो गुब्बारे और खिलौने उठाके ले आया।  मुझसे बोला- दीदी आप गुब्बारे ले लो चाहे कोई खिलौना खरीद लो।  आज बहुत भूख भी लगी है मेरी कोई बोहनी भी नहीं हुई है।   दस रूपये में गुब्बारा और पचास रूपये में छोटी कार बेच रहा था।  मैंने वो दोनों चीजें खरीद लीं जबकि मुझे उनकी कोई आवश्यकता नहीं थी।  रामू बोल रहा था -दीदी आप बहुत अच्छी हो भगवान आपकी मदद करेगा। 

  उस दिन मेरा एक टेण्डर पास होना था जो ईश्वर की कृपा से हो गया। ईश्वर भी तो बच्चों के निष्कपट दिल में बसता है।    मुझे लगता है कि इन बच्चों को ऊपर उठने में हमें भी सहयोग उनका सामान खरीद करके कर सकते हैं।  रामू से पता चला था कि कोई आकर उन्हें ये वस्तुएँ बेचने को दे जाता है।   उसने हमसे भीख न माँगने की कसम ली है। पहले तो हम सब जो भी फुटपाथ पर आपको दिख रहे हैं सब भीख माँगते थे।  पर अब सामान बेचकर जो पैसे मिलते हैं उसमें से कुछ पैसे वो सामान के काटकर बाकी पैसे हमको लौटा देता है और दूसरे दिन के लिए वो और सामान दे जाता है।   इस प्रकार मुझे भी उससे यह जानकर अच्छा लगा कि मेहनत से कमाकर वो लोग अपना गुज़ारा करते हैं। 

रामू जैसे और भी कई बच्चों ने यही बताया।  फिर मैंने उनसे पूछा कुछ पढ़ते लिखते भी हो या नहीं।  रामू ने जवाब दिया- दीदी मैं और मेरा छोटा भाई टिंकू तो सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं।  स्कूल से ही हमें एक ड्रैस पहनने को मिल जाती है और खाना भी स्कूल से मुफ्त मिलता है।   एक गुरूजी वहाँ आकर स्कूल वालों से पूछते रहते हैं।  कोई भी गरीब बेसहारा होता है तो उसकी मदद करते हैं। गुरूजी तो उन बच्चों का नाम लिखकर ले जाते हैं।  फिर वो स्कूल में पैसे भेज देते हैं।   पहले  तो जब भीख मांगते थे तब हम लोग अपने ठिकाने बदलते रहते थे।  क्योंकि पुलिस वाले भी हमें पीटते थे।   कभी कभी तो कुछ लोग हम लोगों को जेल में बंद कर देते थे पता नहीं क्यों। लेकिन अब हम लोग भी इज्जत से जीवन गुजारते हैं। मेहनत करते हैं और अपना पेट पालते हैं। 

तबसे मैं भी कभी कभी उधर से गुजरते हुए उनके साथ किसी का जन्मदिन हो , त्यौहार हो खुशियाँ बाँटती हूँ। उनके चेहरे पर जो सुकून ख़ुशी देखती हूँ तो मेरा मन भी बहुत ख़ुशी से भर जाता है।  इन गरीबों का सहारा बनने की कोशिश करती हूँ।  रामू को कभी उसके भाई के लिए भी स्कूल ले जाने के लिए कॉपी ,पेन्सिल,रबर,स्केल आदि देती रहती हूँ। कभी आप भी किसी की सहायता करें तो पायेंगे खुशी आपको मिल रही है। इनका कोई घर तो नहीं है इसी फुटपाथ पर ही सड़क के किनारे जिंदगी गुजारते हैं।  जहाँ इनका मुक़ददर ले जाता है वहीं अपना ठिकाना आसमां के नीचे बसा लेते हैं। 
@मीना गुलियानी 

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