गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

जिन्दगी



जलता हुआ इक  दीपक था 
लौ थरथरा रही हो जैसे 
तभी  मुझे याद आ गई जिंदगी 
यह भी अद्भुत सत्य है 
इससे कब तक तुम दूर जाओगे 
एक दिन सभी उसके समक्ष झुकेंगे 
फिर क्यों न मोल माने जिंदगी का 
ऐ जिंदगी कितने ही सितम तूने ढाए मुझ पर 
किसी मोड़ पर मिलन था किसी पे जुदाई 
यह एक अजीब शह गुज़री है मुझ पर 
सपनों में भी जिंदगी का अक्स देता है धोखा 
इसमें कई बार देखा है पलकों के पीछे से 
भागते हुए मुसाफिरों को पाकर मौका 

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