मंगलवार, 16 मई 2017

न सीरत बिगड़नी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी ये आग जलनी चाहिए

दर्द की लहर अब पर्वत नुमा हुई
इसमें कोई धारा निकलनी चाहिए

दरों दीवारें भी कमज़ोर हुई अब तो
 रिवाज़ों की बुनियाद हिलनी चाहिए

दिल बहलाओ मगर इतना न तुम उड़ो
सपने बिखरे न सीरत बिगड़नी चाहिए
@मीना गुलियानी 

1 टिप्पणी:

  1. यह कविता पढ़कर..स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जी की कविता याद आ गई..
    हंगामा खड़ा करना, मेरा मकसद नहीं.
    ये सूरत बदलनी चाहिए.
    शुभ रात्रि.

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