रविवार, 6 मई 2018

सुबह की प्रतीक्षा करती हूँ

मेरी खिड़की से रोज़ धूप
छनकर बिस्तर से होकर
दीवारों ,सीढ़ियों से चढ़ती
गलियारे में उतरती, रूकती है
मानो अपनी थकान उतारती है
मेरे घर में लगे नीम,फालसे ,
अमरुद,अशोक के पेड़ों को
उनकी पत्तियों को,फूलों को
स्नेह से सहलाती है उनकी
ओसकणों को अपनी किरणों से
और भी चमकीला बना देती है
दोपहर में तेज़ होने पर बादल
घिर आते हैं बूँदाबाँदी होती है
जो धरती की तपन मिटाती हैं
मिट्टी से सौंधी खुशबु आती है
जो मन को पुलकित करती है
फिर सूरज ढलने लगता है
यह धूप भी अपना स्थान
बदल लेती है ,धीरे धीरे
वो खम्बों की आड़ में
पहाड़ो के पीछे,परछाईं
सी बनकर तिरोहित हो जाती है
और मैं उसे दोबारा देखने को
अगली सुबह की प्रतीक्षा करती हूँ
@मीना गुलियानी

1 टिप्पणी:

  1. प्रकृति के क्रिया कलापों का स्वयं से एक स्निग्ध सम्बन्ध कायम कर शब्दों मे सुंदरता से उतारना यही तो है एक कवि की रचनात्मकता,
    बहुत सुंदर मीना जी

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