बुधवार, 29 अगस्त 2018

प्रतीक्षारत हूँ

कहने को तो मैं एक समुंद्र हूँ
अनगिनत लहरें भी मेरे पास हैं
मुझसे आकर रोज़ टकराती हैं
जाने क्या क्या वो कह जाती हैं
फिर भी न जाने क्यों तन्हा हूँ
मेरा तट भी कबसे सूना पड़ा है
इसे तुम बिन कौन रोशन करेगा
तुम्हारे आने से ही उजाला होगा
मेरा सूनापन भी स्वत; दूर होगा
तुम्हारी राहों के शूल मैं चुनता हूँ
तुम्हारी माला के लिए मोती सीपियाँ
रोज़ मैं अपनी तलहटी से चुनता हूँ
आज भी इसी तट पर तुम्हारे लौटने को
दोनों किनारों की बाहें पसारकर मैं
जाने कितने समय से प्रतीक्षारत हूँ
@मीना गुलियानी 

9 टिप्‍पणियां:

  1. समुद्र के बहाने किसी विकाल में। की अनकही दास्तां प्रिय मीना जी ।सादर।

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  2. विरह की हकीकत से रुबरु करवाती हुई बहुत ही शानदार रचना ।
    👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌

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  3. प्रतीक्षा की अकुलाहट और संयमभरी उम्मीद ही जीवन को उर्जावान बनाये रखती है. सुन्दर रचना.
    बधाई एवम् शुभकामनायें.

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