सोमवार, 21 दिसंबर 2015

प्रात: हुआ



प्रात; हुआ पंछी भी जागे 
रवि ने स्वर्ण लुटाया 
ढलते दिन की थकती काया 
साँझ का वैभव आया 
दो क्षण को फिर जग का आँगन 
कलरव से इठलाया 
देख सकी  कब रजनी उसको 
मग में तिमिर बिछाया 

लहरों से अभिलाषाएं यह 
क्या क्या रंग दिखाती 
उठती गिरती बढ़ती जाती 
तट अवलोक न पाती 
पानी के बुद्बुदे से अपने 
सतरंगी बन आते 
बालू के कितने निकेत  वे 
झंझा में भर पाते 

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