रविवार, 1 जुलाई 2018

मकां सा है

आसमां आग ये उगलता है
सारा मंज़र धुआँ धुआँ सा है
तुमसे दुश्मनी क्या हुई
ख़ाक गुलिस्तां सा है
शहर ये बेज़ुबाँ सा है
ले गया कहकहे हमारे सब
जो बना मेहरबां सा है
मुन्तज़िर यूँ तो ये जहाँ सा है
तेरे दहलीज़ पर कदम जो पड़े
जगमगाने लगा मकां सा है
@मीना गुलियानी 

5 टिप्‍पणियां:

  1. किसी के होने और न होने के फ़र्क़ को बख़ूबी लिखा है ...
    प्रेम शायद इसी को कहते हैं ...

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  2. बेहतरीन रचना यथार्थ के बेहद करीब

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  3. अति सुन्दर
    आसमां आग ये उगलता है
    सारा मंज़र धुआँ धुआँ सा है बेहतरीन रचना

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  4. वाह मीना जी बहुत उम्दा गजल जैसी बानगी सुंदर रचना

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