नितिन और उमा ने प्रेम विवाह किया था। आज पूरे पाँच वर्ष बीत चुके थे। आज उसे अस्पताल उमा को दिखाने के लिए जाना पड़ा तो उसे सुखद समाचार प्राप्त हुआ कि उमा ग़र्भवती है। घर पर जब उसने यह समाचार सुनाया तो उसके परिवार में भी हर्ष की लहर दौड़ गई। उसकी माँ ने कहा अब तो उमा को घर के सभी कामों से आजादी मिलेगी। सारा काम वो खुद कर लेगी और बाकी ऊपर का काम तो बाई आकर संभाल लेगी। उमा तो सिर्फ अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखे। आखिर वो शुभ दिन भी आ गया जब नितिन एक की बजाय दो कन्याओँ का पिता बन गया। उसे जुड़वाँ कन्याएँ प्राप्त हुईं। पूरा परिवार खुश था थोड़ा सा वो उम्मीद कर रहे थे कि एक बेटा एक बेटी हो जाती तो ज्यादा अच्छा होत पर होनी को कौन टाल सकता है। अब उमा ने भी दो तीन माह के पूरे आराम के बाद नौकरी पर जाना शुरू कर दिया था। अब तो दो कन्याएँ थीं दोनोँ को अकेले माँ जी भी नहीं संभाल सकती थीं तो एक बाई जो आती थी उसे सुबह से शाम तक का पूरा दिन काम पर रख लिया।
उमा सुबह घर का काम करके ऑफिस जाती थी तो वापिस आके घर को और बच्चों को संभालती थी। माँ जी फिर रसोई देख लेती या वो बच्चों का ध्यान रखती तो उमा रसोई का काम कर लेती थी। इस तरह मिल बाँट कर घर चल रहा था। पर धीरे धीरे कुछ समय गुज़रने के बाद नितिन की माँ जी को भी अखरने लगा कि इस उम्र में वो घर के काम में पिसने लगी है तो उंसने कुछ समय बाद अपना दबा आक्रोश बहू पर निकालना आरम्भ कर दिया। बात बात पर खीजना रोज़ का नियम बन गया। बिना बात के कभी सब्जी में नमक ज्यादा डाल दिया तो कभी दाल में तरी ज्यादा हो गई या रोटी जल गई अथवा कच्ची रह गई। इस तरह के ताने सुनकर उमा जो ऑफिस से थकी हारी लौटती थी माँ जी के व्यवहार से अंदर ही अंदर टूटने लगी।
नितिन भी किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता था वो भी अधर झूल में था कैसे यह समस्या सुलझे। अब अगले साल माँ जी को फिर से बहू के गर्भवती होने की सूचना मिली तो उसने नितिन से कहा अगर इस बार बेटा हो जाए तो मैं भी गंगा नहा लूँगी। तुम इसकी भ्रूण जाँच करवा लो तो नितिन के एक दोस्त का क्लीनिक था जहाँ से ख़ुफ़िया रूप से उसने पता कर लिया कि फिर से उसकी पत्नी को बेटी होने वाली है तो अब तो घर को माँ जी ने घर सिर पर उठा लिया उन्होंने बहू से कहा कि वो गर्भपात करवा ले। बहू ने सोचा इसमें आने वाले बच्चे का क्या कसूर है। बेटी हे तो क्या वो तो अजन्मे बच्चे की हत्या नहीं करेगी। माँ जी उसकी इस दलील से खुश नहीं थी वो एक दाई को घर ले आई थी बहू से कहा कि ये तुम्हारा काम आधे घंटे में कर देगी और तुम्हें भी प्रसव पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। नितिन भी उमा के हक में कुछ कह नहीं पा रहा था। वो न तो माँ जी को दोषी मान रहा था न ही उमा का साथ दे पा रहा था बस खुद को ही वो इन सब बातों के लिए अपराधी मान रहा था। आखिर में उमा ने खुद ही अपने विवेकानुसार फैसला किया कि वो हर हालत में बच्ची को जन्म देगी चाहे इसके लिए उसे नौकरी ही क्यों न छोड़नी पड़े। अब तो बहू की उस धमकी भरे कदम से सभी स्तब्ध रह गए। उमा के विवेक की जीत हुई वो ख़ुशी से फूली न समा रही थी कि उसे हत्या के दोष से मुक्ति मिली। नितिन को भी अपराध बोध से अब थोड़ी मुक्ति मिली। माँ जी का तो चेहरा ही उतर गया था। उमा का स्त्रीत्व जीत गया था। लेकिन फिर भी उमा का तो वो अपराधी ही खुद को मान रहा था कि थोड़ा सा ध्यान रखा होता तो उसे ये दर्द का सामना न करना पड़ता उसने उमा से कहा मेरे ही कारण तुम्हें इस मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा। मैंने ही तुम्हें दुःख दिया जिसके लिए तुम्हारा अपराधी हूँ चाहो तो जो भी सजा दे दो। उमा बोली अब तो आप भी कुछ नहीं सोचो जो हो गया सो हो गया आप भी अपने मन को शांत कर लो।
@मीना गुलियानी
उमा सुबह घर का काम करके ऑफिस जाती थी तो वापिस आके घर को और बच्चों को संभालती थी। माँ जी फिर रसोई देख लेती या वो बच्चों का ध्यान रखती तो उमा रसोई का काम कर लेती थी। इस तरह मिल बाँट कर घर चल रहा था। पर धीरे धीरे कुछ समय गुज़रने के बाद नितिन की माँ जी को भी अखरने लगा कि इस उम्र में वो घर के काम में पिसने लगी है तो उंसने कुछ समय बाद अपना दबा आक्रोश बहू पर निकालना आरम्भ कर दिया। बात बात पर खीजना रोज़ का नियम बन गया। बिना बात के कभी सब्जी में नमक ज्यादा डाल दिया तो कभी दाल में तरी ज्यादा हो गई या रोटी जल गई अथवा कच्ची रह गई। इस तरह के ताने सुनकर उमा जो ऑफिस से थकी हारी लौटती थी माँ जी के व्यवहार से अंदर ही अंदर टूटने लगी।
नितिन भी किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता था वो भी अधर झूल में था कैसे यह समस्या सुलझे। अब अगले साल माँ जी को फिर से बहू के गर्भवती होने की सूचना मिली तो उसने नितिन से कहा अगर इस बार बेटा हो जाए तो मैं भी गंगा नहा लूँगी। तुम इसकी भ्रूण जाँच करवा लो तो नितिन के एक दोस्त का क्लीनिक था जहाँ से ख़ुफ़िया रूप से उसने पता कर लिया कि फिर से उसकी पत्नी को बेटी होने वाली है तो अब तो घर को माँ जी ने घर सिर पर उठा लिया उन्होंने बहू से कहा कि वो गर्भपात करवा ले। बहू ने सोचा इसमें आने वाले बच्चे का क्या कसूर है। बेटी हे तो क्या वो तो अजन्मे बच्चे की हत्या नहीं करेगी। माँ जी उसकी इस दलील से खुश नहीं थी वो एक दाई को घर ले आई थी बहू से कहा कि ये तुम्हारा काम आधे घंटे में कर देगी और तुम्हें भी प्रसव पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। नितिन भी उमा के हक में कुछ कह नहीं पा रहा था। वो न तो माँ जी को दोषी मान रहा था न ही उमा का साथ दे पा रहा था बस खुद को ही वो इन सब बातों के लिए अपराधी मान रहा था। आखिर में उमा ने खुद ही अपने विवेकानुसार फैसला किया कि वो हर हालत में बच्ची को जन्म देगी चाहे इसके लिए उसे नौकरी ही क्यों न छोड़नी पड़े। अब तो बहू की उस धमकी भरे कदम से सभी स्तब्ध रह गए। उमा के विवेक की जीत हुई वो ख़ुशी से फूली न समा रही थी कि उसे हत्या के दोष से मुक्ति मिली। नितिन को भी अपराध बोध से अब थोड़ी मुक्ति मिली। माँ जी का तो चेहरा ही उतर गया था। उमा का स्त्रीत्व जीत गया था। लेकिन फिर भी उमा का तो वो अपराधी ही खुद को मान रहा था कि थोड़ा सा ध्यान रखा होता तो उसे ये दर्द का सामना न करना पड़ता उसने उमा से कहा मेरे ही कारण तुम्हें इस मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा। मैंने ही तुम्हें दुःख दिया जिसके लिए तुम्हारा अपराधी हूँ चाहो तो जो भी सजा दे दो। उमा बोली अब तो आप भी कुछ नहीं सोचो जो हो गया सो हो गया आप भी अपने मन को शांत कर लो।
@मीना गुलियानी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें