कितनी चंचल है नदी की ये धारा
इस पार से उस पार जाती तो है
दिल का दिया भी बुझने को है
लाओ चिंगारी इसकी बाती तो है
लहरों का अस्तित्व मिटने से पहले
सागर के तट पर टकराती तो है
संध्या ने ओढी है काली चुनरिया
फिर रात के बाद भोर आती तो है
@मीना गुलियानी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें