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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

समेटकर ले आती है

इक मुलाकात में सारी उम्र चली जाती है
आंसू के कण में सृष्टि सिमट जाती है

अंतर्मन में मीठे पानी की लहर आती है
जिसमें सूने मन की रेत भीग जाती है

मन की माला कोमल किसलयी हो जाती है
 मलयानिल सुगंध अपनी लुटा जाती है

खुशियों की सीपियाँ जो जिंदगी चुराती है
फ़ुरक़त के पलों मेँ समेटकर ले आती है
@मीना गुलियानी 

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

स्मृतियों का अवशेष हैं मेरे सपने

मेरे सपने मेरी आँखों में लहलहाते हैं
होठों पे थरथराते हैं बिन कहे रह जाते हैं
मेरे सपनों में इंद्रधनुष रंग भरता है
बादल भी कूची सा बन बिखरता है
मैं फूलों से रंग बिरंगे रंग चुनती हूँ
उनसे सपनों का ताना बाना बुनती हूँ
कभी चम्पा चमेली जूही का फूल मैं
बनाती हूँ ,उन्हें देख देख हर्षाती हूँ
मलयानिल के झोंके सुगंध भरते हैं
हरी दूब का बिछौना बनता है मेरा
मेरे सपनों में प्रकृति का है पहरा
धरा से आकाश तक हिंडोला मेरा
चन्द्रमा की किरणें आके झुलाती हैं
शीतल बयार लोरी मुझे सुनाती है
तारों की चूनर चन्द्रमा का टीका
पहन इठलाती हूँ झूम जाती हूँ
जुगनू  उजाला करते हैं राहों में
कभी जलते बुझते हैं वीरानों में
मेरे सपने उफनती नदी समान हैं
जिसका कोई गंतव्य ही नहीं है
कोई सीमा नहीं कोई बंधन नहीं है
अपनी ही तान अपनी वृति और
अपने ही रस में लीन हैं अनन्त हैं
मेरे सपनों में एकांत की अनुभूति है
यथार्थ के सत्य की पीड़ा भी है
मेरा मन मानसरोवर समान है
मुझे संवेदना द्वारा मुझसे जोड़ता है
मेरी स्मृतियों का अवशेष हैं मेरे सपने
@मीना गुलियानी 

सोमवार, 27 नवंबर 2017

क्या यही हूँ मैं

मैं अपनी जिंदगी की किताब
खोलता हूँ , पन्ना पलटता हूँ
घटनाएँ अनगिनत रंग में रंगती  हैं
बारिश की बूँद दूब पर मुस्काती है
मेरी तन्हाइयों की यादें गुनगुनाती हैं
तब मेरे आँसू पिघल जाते हैं और
मेरे अंतर के भय बिखर जाते हैं
मेरी अंगुलियाँ रेत पर थिरकती हैं
मैं अपनी तस्वीर को उकेरता हूँ
सुख की , दुःख की  परछाईयाँ
उभरती हैं , मेरे जीवन में तब
अनायास ही बसंत खिल उठता है
नए नए फूल उग आते हैं
अनन्त का झरना प्रवाहित होता है
जिससे मेरा तन मन रोमांचित होता है
मैं उसमे खो सा जाता हूँ
जिंदगी की किताब को देखता हूँ
पढ़ता हूँ , जीता हूँ, खुश होता हूँ
सोचता हूँ , क्या यही हूँ मैं ?
@मीना गुलियानी 

शनिवार, 25 नवंबर 2017

सुर बन गुनगुनाते हैं

कुछ रिश्ते अनायास ही जुड़ जाते हैं
अनबूझ पहेली सी वो बन जाते हैं

न किसी परम्परा को वो मानते हैं
न कोई भेदभाव वो पहचानते हैं

बिन बोले ही दिल में  बस जाते हैं
दिल में नई प्रेरणा को जगाते हैं

विश्वास की इक डोर से बँध जाते हैं
अन्जान पर  दिल में रम जाते हैं

होठों की  मुस्कुराहट बन जाते हैं
नभ में बादल बन बरस जाते हैं

कागज़ की कश्ती बन तैरते हैं
अनमोल सुर बन गुनगुनाते हैं
@मीना गुलियानी 

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

याद हमको आने लगे हैं

वो रह रह के याद हमको आने लगे हैं
जिनको भुलाने में ज़माने लगे हैं

कभी कह न पाए जिन्हें दिल की बातें
वो बातें सभी को हम बताने लगे हैं

कहीं टूट जाए न हसरत भरा दिल
इस दिल को हम बहलाने लगे हैं

देखो चुभ न जाएँ कहीं तुमको काँटे
दामन अपना हमसे छुड़ाने लगे हैं

बहुत जी लिए हम घुट घुटके अब तक
नाकामियों पे पर्दे हम गिराने लगे हैं
@मीना गुलियानी 

बुधवार, 22 नवंबर 2017

कटु सत्य है, यथार्थ है

समय बचपन से मेरा सहचर रहा है
मेरे बचपन की क्रीड़ा का
यौवन के सुख दुःख के क्षणों का
समय साक्षी रहा है
समय अनुभूति का विषय है
रीति , नीति , प्रीति का
समय में संवेग है , संकल्प है
यह गतिशील , परिवर्तनशील है
सभी नक्षत्र इसके आधीन हैं
दिन, रात , सूर्य , चन्द्रमा ,तारे
सब समयानुसार कार्य करते हैं
पत्ते पर पड़ी ओस की बूँद है
जो उगते सूर्य को समर्पित है
यह शतरंज की बिसात है
यही शह और मात है
समय उन्नति का मार्ग है
यह एक अनवरत सीढी है
धरा को गगन से मिलाने के लिए
समय नश्वर और अनश्वर है
समय चेतना और अचेतना है
यही आस्था , भक्ति और विरक्ति है
समय ही गति , नियति , प्रगति है
समय की धारा बहुत प्रबल है
बड़े बड़े राजा महाराजा इसके आगे
नतमस्तक हो जाते हैं
कब, कौन, कैसे, कोई घटना घटित होगी
यह सिर्फ समय ही जानता है
हर युग का इतिहास केवल
समय के ही पास है
हम सब समय के आधीन हैं
यही कटु सत्य है, यथार्थ है
@मीना गुलियानी 

सोमवार, 20 नवंबर 2017

कोशिश कर रहा हूँ मैं

तेरे साथ मेरे हमदम हमेशा रहा हूँ मैं
मुझे जिस तरह से चाहा वैसा रहा हूँ मैं

तेरे सर पे धूप आई तो मैं पेड़ बन गया
तेरी जिंदगी में कोई वजह रहा हूँ मैं

मेरे दिल पे हाथ रखके बेबसी को समझो
मैं इधर से बना तो उधर ढह रहा हूँ मैं

तू आगे बढ़ गई तो यहीं पे रुक गया
तू सागर बनी कतरा बन रहा हूँ मैं

चट्टानों पे चढ़ा तो पाँव की छाप रह गई 
किन रास्तों से तेरे साथ गुज़र रहा हूँ मैं

ग़म से निज़ात पाने की सूरत नहीं रही
 निजात पाने की कोशिश कर रहा हूँ मैं
@मीना गुलियानी 

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

हमपे इनायत नहीं रही

हमने अकेले सफर किया है तमाम उम्र
किसी मेहरबां की हमपे इनायत नहीं रही

कुछ दोस्तों से हम भी मरासिम नहीं रहे
कुछ दुश्मनों से हमारी अदावत नहीं रही

तकल्लुफ़ से कुछ कहें तो बुरा मानते हैं
रो रो के बात करने की आदत नहीं रही 

सीने में जिंदगी अभी सलामत है मगर
इस जिंदगी की कोई ज़रूरत नहीं रही

कितनी मशालें लेके चले थे सफर पे हम
जो रौशनी थी वो भी सलामत नहीं रही

खण्डहर बचे हुए हैं इमारत कोई नहीं रही
अब तो हमारे सर पे कोई छत नहीं रही
@मीना गुलियानी 

बुधवार, 15 नवंबर 2017

याद आया वो गुज़रा ज़माना

वो चिलमन उठाके तेरा मुस्कुराना
वो पलकें उठाना उठाके गिराना
खिलखिलाती हँसी होंठों में दबाना
तितली सी उड़ती फिरना इतराना

वो पहरों तेरा छुपके आँसू बहाना
तेरा यूँ मचलना बहाने बनाना
हथेली में अपने मुँह को छिपाना
कभी छुपके रोना कभी गुनगुनाना

वो तारों की छाँव में छिपना छिपाना
चेहरे को अपने पल्लू में छिपाना
आँखों से अपने बिजली को गिराना
पाँव में  पायल की रुनझुन बजाना

वो शाखों से लिपटकर बल खाना
जुगनू सी दमकना सिमट जाना
यादों की भूल भुलैया में खो जाना
मुझे याद आया वो गुज़रा ज़माना
@मीना गुलियानी 

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

बनाने में जमाने लगे हैं

वो नज़रें हमसे ही चुराने लगे हैं
जिनको मिलाने में जमाने लगे हैं

किसी ने पाई हर ख़ुशी इस जहाँ में
हमें जिसको पाने में जमाने लगे हैं

अमावस की रातें  कटें एक पल में
कभी पल बिताने में जमाने लगे हैं

  खोजा जिसे वो मंजिल थी सामने
हमें  उसको पाने में जमाने लगे हैं

न टूटे कभी भी दिल के ये रिश्ते
इनको बनाने में जमाने लगे हैं
@मीना गुलियानी 

सोमवार, 13 नवंबर 2017

मेरे मन को हर्षाए

दूर अस्ताचल में सूरज ढल गया है
साँझ की बेला में फूल झरने लगे हैं
पक्षी घोंसलों में लौटने लगे हैं
उनका कलरव मन को लुभाता है
उनका चहचहाना चौंच से चुगना
दायें  बायें घूमना बच्चों को खिलाना
शीतल बयार में पंख फैलाये उड़ना
पानी में डुबकी लगाना इठलाना
सब देखना मन प्रमुदित करता है
मेरा मन भी चाहता है कि काश
मुझको भी गर पंख मिले होते
तो गगन के तारों को छू लेती
चन्द्रमा की किरणों से खेलती
व्योम की सहचरी बन कभी नभ
तो कभी धरा पर विचरती फिरती
मेरी उमंगों को भी पंख लगते
दुनिया के ग़म से विलग होते
केवल सुख का ही तब नाम होता
दुःख का न फिर हमें पता होता
चन्द्रमा का टीका माँग में सजाती
तारों की पायल पहन नृत्य करती
तुम वीणा से ताल को मिलाते
सब पक्षी वृन्द ढोल को बजाते
हिरण कुलांचे भरता हुआ आता
अपनी मस्त चाल पर वो इतराता
मोर मयूरी को रिझाता पंख फैलाए 
यह सब दृश्य मेरे मन को हर्षाए
@मीना गुलियानी

रविवार, 12 नवंबर 2017

ऐसी कोई व्यवस्था बना दो

आज डोलने लगे धरा भी
ऐसी तुम हुंकार लगा दो
धरती से अंबर सब डोले
अलख का नारा लगा दो

जाग उठे सारी ये जनता
सोये इनके भाग्य जगा दो
खोया सब विश्वास ये पाएं
ऐसा कुछ करके दिखला दो

हर नारी सम्मान को पाए
ऐसी जागृति देश में ला दो
सबकी मर्यादा रहे सुरक्षित
सुप्त संस्कारों को जगा दो

देश में  सब खुशहाल रहें
 शान्ति का मार्ग दिखा दो
सबकी हर पीड़ा मिट जाए
ऐसा प्रेम का दीप जला दो

कोई रहे न भूखा प्यासा
अन्न  समस्या सुलझा दो
हर कोई सुख से सो जाए
ऐसी कोई व्यवस्था बना दो
@मीना गुलियानी 

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

संवेदना दिल में जगाएं

विरक्त मेरा मन हो चला
देखकर  संसार की वृत्तियाँ 
 कुत्सित भावना छल प्रवृति 
मन मेरा संतप्त हो चला

मचा हर तरफ  हाहाकार
भूख बेबसी सब लाचार
कुछ जीवन से गए हार
किया परित्याग समझ बेकार

देखी नहीं जाती उनकी दुर्दशा
मन मेरा व्याकुल हो उठा
चाहूँ मैं भी कुछ करूँ आज
जिससे मिले सबको अनाज

सबके घरों में चूल्हे जलें
कोई भी भूखा न रहे
सबके बच्चे फूले फलें
तब तृप्ति मन को मिले

सबकी बेटियाँ शिक्षा पायें
कुंठित भावनाएँ नष्ट हों
मन सबके शुद्ध पावन हों
कोई भी  न पथभ्र्ष्ट हो

ईश्वर सबको सद्ज्ञान दे
बुद्धि और क्षमादान दे
सबको सन्मार्ग पे लाये
संवेदना दिल में जगाएं
@मीना गुलियानी 

बुधवार, 8 नवंबर 2017

आशा हम ऐसी जगायें

सुरम्य सी है धरा
नीला नीला है गगन
हवाएँ चली मंद मंद
पुलकित है मन उपवन

आओ मिलके ख़ुशी बाँटे
दुःख को दूर भगाएँ
ऐसे करें हम काम
दीप नए हम जलाएँ

बुझते हुए चिराग़ों को
 आज हम जगमगायें
कोई कोना न रहे अछूता
सबको एक पंक्ति में लायें

हर अनाथ बेसहारा को
आज हम गले लगायें
उनकी मुस्कुराहट को
आज फिर लौटाके लायें

धरती पे मानवता बसे
ऐसा कुछ करके दिखाएं
प्रेम भरा हर दिल हो
आशा हम ऐसी जगायें
@मीना गुलियानी

सोमवार, 6 नवंबर 2017

आओ थोड़ा जी लें

हम जीवन में कबसे भाग रहे हैं
तुम अकेले नहीं हो मैं भी साथ हूँ
आओ कुछ देर पेड़ की छाया में सुस्ता लें
कुछ मन का बोझ हल्का करें थकन उतार लें
वो भी क्या वक्त था जब हम मिले थे
क्या वो समाँ था क्या सिलसिले थे
वो सागर किनारे मचलती लहरों का देखना
रेत को पैरों के अँगूठे से कुरेदना
वो दिन रात पंख लगाकर उड़ गए
जीवन की प्रभात , दुपहरी ढल गई
अब साँझ चुनरी फैलाकर स्वागत कर रही है
चन्द्रमा की किरणें बाहें फैलाकर बुला रही हैं
इस भागती दौड़ती जिंदगी से थक गए हैं
अपनी मरूफियत के बोझ मन से उतार दो
गुज़रे पलों को पलकों में समेट लो
 जीवन की इस सांध्य बेला में
आँखे मुंदने से पहले जीवन में
उमंग भरके नए  भरके
खुशियाँ उँड़ेले आओ थोड़ा जी लें
@मीना गुलियानी 

दूर कहीं फिर मेरे होकर

आज तुम फिर से अजनबी बन जाओ
फिर से धीरे धीरे दिल में उतर जाओ

न पूछूँ गाँव तुम्हारा न पूछूँ  नाम तुम्हारा 
दोनों ही चुपचाप रहें आँखे ही करदे इशारा

 सागर का हो किनारा जहाँ थामा हाथ हमारा
चलें हम साथ साथ आये नज़र वही  नज़ारा

रेत के फिर महल बनाएं पलकों में सपने जगायें
चुपके चुपके चोरी से दिल की धड़कन बन जाएँ

सागर की लहरें जब हमसे करे अठखेलियाँ
तब हम भी किनारे  पे बैठे और ढूंढें सीपियाँ

रह जाएँ ये पल तब हमारे दिल में बसकर
जाना न मुझसे दूर कहीं फिर मेरे होकर
@मीना गुलियानी 

शनिवार, 4 नवंबर 2017

सारा जीवन गुज़ार लेती है

आज की नारी घर बाहर संभाल लेती है
हर मुश्किल का वो हल निकाल लेती है
दुखी होने पर  ग़म हँसी में टाल देती है
घर में शान्ति के लिए चुप्पी साध लेती है
बिन कहे सबके मन की जान लेती है
 मसरूफ़ियत में खुद को तलाश लेती है
खुद टूटने पर भी खुद को संभाल लेती है
 छटपटाहट को मुस्कुराहट में ढाल लेती है
अपनी भावनाओं को दिल में उतार लेती है
प्रेम की चाह में सारा जीवन गुज़ार लेती है
@मीना गुलियानी 

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

बाजी में जी छोटा न करते हैं

थोड़ा सुकूँ भी तुम ढूँढो इस जिंदगी में
ख्वाहिशें तो हम बेहिसाब करते हैं

खोये रहते हैं सब अपनी उलझनों में
चुप रहने वालों से उलझा न करते हैं

दिलों की महफ़िल में खामोशियाँ अच्छी हैं
मुहब्बत के क़रीनों में बेअदबी न करते हैं

चाहे तूफानी लहरें हों चाहे कितने पहरे हों
किश्ती खेने वाले हिम्मत हारा न करते हैं

जिन्दगी में कुछ खोना है कुछ पाना है
शतरंज की बाजी में जी छोटा न करते हैं
@मीना गुलियानी




साहिल पा जाती हूँ

तुम मेरी कल्पना में बसते हो
न जाने क्या मुझसे कहते हो

मैं जब कविता लिखती हूँ
तुम अपनी झलक दिखाते हो

कभी तुम सामने आते हो
कभी खुद को छिपाते हो

 जाने कैसा पावन रूप तुम्हारा
उज्ज्वल जैसे अंबर का तारा

सारा ज्ञान तुममें सिमट जाता
ऐसा प्रकाश पुंज तुमसे है आता

मैं खुद ही उसमें डूब जाती हूँ
लगता है साहिल पा जाती हूँ
@मीना गुलियानी