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सोमवार, 13 नवंबर 2017

मेरे मन को हर्षाए

दूर अस्ताचल में सूरज ढल गया है
साँझ की बेला में फूल झरने लगे हैं
पक्षी घोंसलों में लौटने लगे हैं
उनका कलरव मन को लुभाता है
उनका चहचहाना चौंच से चुगना
दायें  बायें घूमना बच्चों को खिलाना
शीतल बयार में पंख फैलाये उड़ना
पानी में डुबकी लगाना इठलाना
सब देखना मन प्रमुदित करता है
मेरा मन भी चाहता है कि काश
मुझको भी गर पंख मिले होते
तो गगन के तारों को छू लेती
चन्द्रमा की किरणों से खेलती
व्योम की सहचरी बन कभी नभ
तो कभी धरा पर विचरती फिरती
मेरी उमंगों को भी पंख लगते
दुनिया के ग़म से विलग होते
केवल सुख का ही तब नाम होता
दुःख का न फिर हमें पता होता
चन्द्रमा का टीका माँग में सजाती
तारों की पायल पहन नृत्य करती
तुम वीणा से ताल को मिलाते
सब पक्षी वृन्द ढोल को बजाते
हिरण कुलांचे भरता हुआ आता
अपनी मस्त चाल पर वो इतराता
मोर मयूरी को रिझाता पंख फैलाए 
यह सब दृश्य मेरे मन को हर्षाए
@मीना गुलियानी

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