यही है यादों का सफर
क्या करूँ कहाँ तक जाऊँ
बहुत गहन अँधेरा है अब
जाते ही ज़रा मन डूबता है अब
कोई मनमीत नही, साथी नहीं
जिसके साथ मन विचरण करे अब
क्या करूँ कोई तो ये समझाये
क्या सब कुछ भूल जाऊँ मै अब
वो पल न जाने कैसे थे
बिखर गए वो प्यारे स्वप्न
हो गई अकेली शाम सुबह
वो प्रेमालाप की धड़कन
सिर्फ यादें है उन चंद लम्हों की
बस और कुछ नहीं न कोई मंजिल
बाकी है अँधेरी गलियों का सफर
सुनसान वीरानी डगर, बिना हमसफ़र
क्या करूँ कहाँ तक जाऊँ
बहुत गहन अँधेरा है अब
जाते ही ज़रा मन डूबता है अब
कोई मनमीत नही, साथी नहीं
जिसके साथ मन विचरण करे अब
क्या करूँ कोई तो ये समझाये
क्या सब कुछ भूल जाऊँ मै अब
वो पल न जाने कैसे थे
बिखर गए वो प्यारे स्वप्न
हो गई अकेली शाम सुबह
वो प्रेमालाप की धड़कन
सिर्फ यादें है उन चंद लम्हों की
बस और कुछ नहीं न कोई मंजिल
बाकी है अँधेरी गलियों का सफर
सुनसान वीरानी डगर, बिना हमसफ़र
भीतरी भावों का मार्मिक स्पंदन ।बधाई मीना जी।
जवाब देंहटाएंThanks
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