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सोमवार, 4 जनवरी 2016

प्रत्यावर्तन



यह प्रेम हृदय की प्रथम चाह 
स्वर्णगंगा सा पावन उज्ज्वल 
रति का कुंकुम श्रृंगार मधुर 
जड़ता में चेतन की हलचल 

                 यदि प्रत्यावर्तन सम्भव हो 
                 मानव क्यों जलना वरण करे 
                 क्यों पी पी चातक रटा करे 
                 क्यों शलभ प्रीति में मरण करे 

यह सृष्टि सदा से मोहमयी 
मानव ने बांटी है कटुता 
वह कितना गरल उड़ेल रहा 
कर दूर हृदय की समरसता 

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