मै साँझ की बुझती बेला
मेरे लिए न जागा कोई
निशि भर दीप जलाकर
मेरे लिए न रोया कोई
नयनों में आंसू भरकर
आँचल की छाँव तले
युग से चलता आया
फिर भी जीवन डगर पर
मै चल रहा अकेला
मै साँझ की बुझती बेला
अपने उर में पाले ज्वाला
स्वयं आग में जलता
अंतर की इस सघन निराशा
को कब किसने तोला
मै साँझ की बुझती बेला
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