वह मृदुल हास्य की रेखा
अधरों में खेल रही थी
तुलसी के आकुल उर में
अनुराग उड़ेल रही थी
जग पड़ी अचानक रत्ना
दृग पटल उनींदे खोले
विषमय ,विषाद, मादकता
उन्माद हृदय में डोले
कुछ स्नेह भाव से सिंचित
कुछ जी में वो झुंझलाकर
रत्ना ख उठी अचानक
कुछ वचन मनोहर गुरुतर
यह "अस्थि चर्ममय पिंजर
उसमे यह प्रीत तुम्हारी
यदि होते तुम हरि सेवक
हो जाती जीत हमारी "
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