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रविवार, 10 जनवरी 2016

इक शमा बुझती है


इक सेज़ पे मातम छाया है
इक सेज़ सजी फूलों वाली 
इक चमन का मालिक हँसता है 
इक बाग़ का रोता है माली 

                     इक द्वार पर बजती शहनाई 
                     इक द्वार से अर्थी जाती है 
                     इक मांग में लो सिन्दूर भरा 
                    इक मांग उजड़ती जाती है 

इक महफ़िल लो आबाद हुई 
इक बज्मे मुहब्बत लुटती है 
देकर के उजाला औरो को 
इक शमा अचानक बुझती है 

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