आज अट्टाहस कर उठी
न जाने कितनी मर्मान्तक यंत्रणाएँ सहकर
आज उद्दीप्त हो उठीं
उन धवल वस्त्रधारी के प्रति
कितनी क्रूर हो उठी
जो वहीँ रहते थे मन में मैली परत थी
आज असहिष्णु हो उठीं
न जाने कितने मजदूरों का शोषण हुआ
प्रतिशोध लेने अग्रसर हो उठीं
सहे जिन्होंने वज्रप्रहार भी, भूख ,लताड़ भी
अब बर्बरता की सीमा लांघ उठी
आज तक की दबी हुई वो चिन्गारी
फिर से प्रज्वलित हो उठी
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