मन हमेशा से ही मुखरित होना चाहता है
ना चाहते हुए भी कसमसाकर रह जाता है
मन की भी कई दुविधाएँ हैं ,प्रपंच,वर्जनाएँ हैं
कितने रीति रिवाजों के शिकंजों में जकड़ा है
कुछ चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकता है
मन मसोसकर ही इसे चुप रहना पड़ता है
समाज की परम्पराओं की कितनी बेड़ियाँ हैं
समाज के कई बन्धन हैं उल्लघन वर्जित है
@मीना गुलियानी
ना चाहते हुए भी कसमसाकर रह जाता है
मन की भी कई दुविधाएँ हैं ,प्रपंच,वर्जनाएँ हैं
कितने रीति रिवाजों के शिकंजों में जकड़ा है
कुछ चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकता है
मन मसोसकर ही इसे चुप रहना पड़ता है
समाज की परम्पराओं की कितनी बेड़ियाँ हैं
समाज के कई बन्धन हैं उल्लघन वर्जित है
@मीना गुलियानी
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