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गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

मुक्त गगन में अब विचरना है

आज भी स्त्री अपनी यंत्रणा से लड़ती है
मन ही मन पिंजरे से उड़ना चाहती है
अनंत विस्तार को पाना चाहती है
लेकिन सैयाद से भी कुछ डरती है

उसने उसके पर नोच डाले हैं
पाँवों में बेड़ियाँ लब पे ताले हैं
गहरे समुद्र की बात करती है
चीख इक बवंडर सी उभरती है

एक शतरंज का मोहरा बना दिया उसने
उसकी चालें वो सब समझती है
मन छटपटाता है आज़ादी पाने को
दिल की तमन्नाओं में रंग भरती है

कुछ कर गुज़रने की चाहत में
दिमाग में कैंची सी चलती है
जाल काटने की चाहत में
अपनी हसरतों से रोज़ लड़ती है

दुर्गा काली का रूप धारण कर
अब उस जाल से निकलना है
सैयाद के मंसूबों को कुचलना है
मुक्त गगन में अब विचरना है
@मीना गुलियानी 

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