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शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

होठों पे अपने हँसी लाना

मेरे द्वार पे तुलसी का पौधा है
जिसे बड़े चाव से मैंने सींचा है

देखो तो कितनी मंजरियाँ हैं खिली
तुम्हारे आने से उनको ख़ुशी मिली

पास ही उसके अमरुद की डाली है
जिसपे कूकती कोयल मतवाली है

सीताफल और अनार हो गए बड़े
तुमसे गुण सीखे हुए पैरों पे खड़े

इनकी आशाएं बलवती होने लगी हैं
कुछ कहानियाँ सी ये बुनने लगी हैं

देती हैं दलीलें मुझसे कुढ़ने लगी हैं
इन्हें दिलासा दो समझने लगी हैं

न हमसे यूँ उलझो इनकी भी सुनो
मत रूठो चुपके से ज़रा तुम हँस लो

  कुंठाएँ गुस्सा देहरी पे छोड़के आना
आओ जब होठों पे अपने हँसी लाना
@मीना गुलियानी

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