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रविवार, 12 फ़रवरी 2017

स्वप्न फिर बुनने लगी

सुना है  डूबते को तिनके का सहारा काफी है
फिर से नए ख़्वाब ये जिंदगी बुनने लगी
हरी हरी घास ने दे दी है अपनी कोमलता
फूलों की पत्तियों ने लुटा दी अपनी सुंदरता
उनका मकरन्द भी चुराया पवन ने भँवरों ने
उसको अपने गीतों में चुपचाप मैं सँजोने लगी
मधुर सपने जो देखे आँखों ने मैं उनमें खोने लगी
मन  स्वच्छन्द सा उडा  जाता है हवा के झोंके से
दिल की तरंग मृदंग की थाप सी बजने लगी
पृथ्वी का स्पर्श मेरे अन्तर्मन को फिर छू गया
प्रकृति के इस आँगन में सृजन उत्सव भर गया
मेरी पलकें सृजन के स्वप्न फिर बुनने लगी
उन सुखद पलों के एहसास बन्द आँखे करने लगी
@मीना गुलियानी 

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