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रविवार, 19 फ़रवरी 2017

मेरे सपनों का गाँव हो

मेरे अन्तर की पीड़ा को तुम क्या जान पाओगे
मेरे भावों की व्याकुलता को तुम क्या समझ पाओगे
मेरे जिस्म के अंदर एक भावुक मन भी है
जो नहीँ रहना चाहता किसी के भी पराधीन
इन सभी सम्बन्धों से ऊपर उठकर चाहता है जीना
वो जिंदगी जो कि शायद दुश्वार लगेगी तुमको
एक एहसास हमेशा मुझे कचोटता है क्या यही जीवन है
सुबह से शाम, शाम से रात, रात से फिर दिन
एक ही कल्पना, यही समरूपता , न भावों का स्पंदन
 वही आशा, वितृष्णा  भरी जिंदगी क्या जीना
जहाँ न शब्दों की है कोई परिभाषा ,सिर्फ निराशा
मैं चाहती हूँ एक नया  संसार यहाँ बसा दूँ
हर तरफ खुले आकाश का शामियाना हो
चाँद तारों को उसमें सजा दूँ ,दीपक सजा दूँ
जहाँ बादलों का झुरमुट अठखेलियाँ करता हो
लहरों भर समंदर सा मन मचलता हो
नए नए उद्गार मन में पनपते हों
नए नए पत्तों से गान हवा से झरते हों
कोयलिया जहाँ मीठे बोल सुनाती हो
तितली जहाँ पँख फैलाती उड़ती इतराती हो
वेदना का जहाँ नामोनिशान  न हो
वहीँ पर बसा मेरे सपनों का गाँव हो
@मीना गुलियानी 

1 टिप्पणी:

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