कहने को तो मैं एक समुंद्र हूँ
अनगिनत लहरें भी मेरे पास हैं
मुझसे आकर रोज़ टकराती हैं
जाने क्या क्या वो कह जाती हैं
फिर भी न जाने क्यों तन्हा हूँ
मेरा तट भी कबसे सूना पड़ा है
इसे तुम बिन कौन रोशन करेगा
तुम्हारे आने से ही उजाला होगा
मेरा सूनापन भी स्वत; दूर होगा
तुम्हारी राहों के शूल मैं चुनता हूँ
तुम्हारी माला के लिए मोती सीपियाँ
रोज़ मैं अपनी तलहटी से चुनता हूँ
आज भी इसी तट पर तुम्हारे लौटने को
दोनों किनारों की बाहें पसारकर मैं
जाने कितने समय से प्रतीक्षारत हूँ
@मीना गुलियानी
अनगिनत लहरें भी मेरे पास हैं
मुझसे आकर रोज़ टकराती हैं
जाने क्या क्या वो कह जाती हैं
फिर भी न जाने क्यों तन्हा हूँ
मेरा तट भी कबसे सूना पड़ा है
इसे तुम बिन कौन रोशन करेगा
तुम्हारे आने से ही उजाला होगा
मेरा सूनापन भी स्वत; दूर होगा
तुम्हारी राहों के शूल मैं चुनता हूँ
तुम्हारी माला के लिए मोती सीपियाँ
रोज़ मैं अपनी तलहटी से चुनता हूँ
आज भी इसी तट पर तुम्हारे लौटने को
दोनों किनारों की बाहें पसारकर मैं
जाने कितने समय से प्रतीक्षारत हूँ
@मीना गुलियानी
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसमुद्र के बहाने किसी विकाल में। की अनकही दास्तां प्रिय मीना जी ।सादर।
जवाब देंहटाएंरेणुका दीदी आपको भी सादर...
हटाएंबहुत खूब 👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंविरह की हकीकत से रुबरु करवाती हुई बहुत ही शानदार रचना ।
जवाब देंहटाएं👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌
प्रतीक्षा की अकुलाहट और संयमभरी उम्मीद ही जीवन को उर्जावान बनाये रखती है. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंबधाई एवम् शुभकामनायें.