हे मेरे मन
तू कब तक यूँ ही
दुनिया में मूर्ख बन
डोलता फिरेगा
ये काया , माया
सब मिट्टी का
ढेला मात्र ही है
सब माटी में ही
मिल जाना है
तो क्यों न उसका
हम ध्यान करें
जो हर पल
अन्तर में
अनहद नाद सा
गुंजायमान होता है
प्रकाश बन मन
आलौकित करता है
उसे ढूँढने के लिए
हृदय के कपाट
खोलने ही पड़ेंगे
अन्तर्चक्षुओं से ही
वह दृष्टिगोचर होगा
@मीना गुलियानी
तू कब तक यूँ ही
दुनिया में मूर्ख बन
डोलता फिरेगा
ये काया , माया
सब मिट्टी का
ढेला मात्र ही है
सब माटी में ही
मिल जाना है
तो क्यों न उसका
हम ध्यान करें
जो हर पल
अन्तर में
अनहद नाद सा
गुंजायमान होता है
प्रकाश बन मन
आलौकित करता है
उसे ढूँढने के लिए
हृदय के कपाट
खोलने ही पड़ेंगे
अन्तर्चक्षुओं से ही
वह दृष्टिगोचर होगा
@मीना गुलियानी
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