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सोमवार, 19 दिसंबर 2016

क्लान्त मन भूले दुःख सारा

तुम्हारे आँसुओं से ये धरा द्रवित हो उठती है
तुम जो हँस दो कली  मन की खिल उठती है

यूँ तो हँसने रोने का रंगमंच सा होता मंचन
तुम्हारे हँसने से लगता हमने पाया है कंचन

तुम्हारी आभा बहुत नैसर्गिक पावन उज्ज्वल
तुम्हें देखकर मन में हमारे होती कुछ  हलचल

तुम्हारा रूप निश्छल निर्मल मधुमास के जैसा
तारे भी झुककर देखें तुम्हें लगता है कुछ ऐसा

तेरी केशराशि चेहरे पे हवा से जब भी बिखरे
लगता है चाँद उतर आया धरा पर गलती से

प्रकृति ने तुम्हारा रूप खुद अपने हाथों से सँवारा
तुम्हें लखकर व्याकुल क्लान्त मन भूले दुःख सारा
@मीना गुलियानी 

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