यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 3 दिसंबर 2016

जैसा चाहो वैसा बन जाऊँ

हो सकती मेरी भी ये हार नहीँ
 आज तुम प्रबल हो जीवन में
मिला  सब पाया जो चाहा तुमने
क्या हुआ मैं व्यथित रहा मन में

                                          किन्तु कोई ग्लानि नहीँ मेरे मन में
                                          जीवन  में कई जीते तो हारे भी कितने
                                          मानते सुख पाने को विजित होने में
                                         मैं चाहूँ सुख अपना सब कुछ खोने में

 तुम्हारा बन पाऊँ क्या अपने आदर्श भुला दूँ
क्या तुम भी चाहते हो कि मैं ऐसा बन जाऊँ
वरना  हाथ बंटाओ मेरा कूदो  समरांगन  में
फिर देख लेना मुझको जैसा चाहो वैसा बन जाऊँ
@मीना गुलियानी


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें