मैं आज मंजिल को पाना चाहती हूँ
हर मुसीबत को दूर करना चाहती हूँ
तुम्हें पाकर मेरा विश्वास लौट आया है
मैं दरिया को चीरकर रास्ता बना सकती हूँ
पर्वतों को भी लांघकर तुम तक आ सकती हूँ
हवाओं का रुख बदलने की सोच सकती हूँ
तुम जो हाथ पकड़ो इस जहाँ को छोड़ सकती हूँ
मैं तुम्हारे लिए दुनिया से भी लड़ सकती हूँ
हर मुसीबत का सामना भी कर सकती हूँ
मुझको जीवन में तुम्हारा सम्बल जो मिला
अब मैं अपना किनारा मैं खुद ढूंढ सकती हूँ
डर नहीँ लगता मुझे सागर की उठती मौज़ो से
नहीँ डरती हूँ मैं अब समाज के भी थपेडों से
अपने रास्ते के कांटो को भी बुहार सकती हूँ
सभी मजबूरियों के दामन को झाड़ सकती हूँ
तुम कभी मेरे इस विश्वास को टूटने मत देना
हर कदम पे साथ रहना हौंसला देते ही रहना
एक उसी विश्वास की डोर को मैं थामे हुए
सारी दुनिया में अपना नाम कर सकती हूँ
@मीना गुलियानी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें