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गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

सपनों में गुनगुनाती हो

कभी कभी भीड़ में भी मन
नितान्त अकेला ही होता है
मन के कोने में छिपा दर्द
अचानक जाग सा उठता है
रिस रिस कर नस नस में
धड़कन बन बहता रहता है
कभी तुम मुझे भी पहचानो
हर पल तुम्हारी आवाज़ को
मैं हमेशा तरसता रहता हूँ
तुम्हारी परछाईं मुझे छूती है
 अंधेरों में ग़ुम हो जाती है
मैं तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ
नींद मुझे आगोश में लेती है
तुम सपनों में गुनगुनाती हो
@मीना गुलियानी 

1 टिप्पणी:

  1. कभी कभी भीड़ में भी मन
    नितान्त अकेला ही होता है
    .........................सुन्दर!

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