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शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

चुप्पी



यह कैसी है रात्रिबेला की निस्तब्धता 
तुम्हारा बिना आहट किये चले आना 
होठों पर चुप के ताले लगा देना 
ताकि वातावरण भी शान्त रहे 
तुम्हारी बातों में कोई खलल न पड़े 
तुम यूँ ही चुपचाप मेरे पास  बैठे रहो 
मै भी ऐसे हो तुम्हें देखती रहूँ 
नज़रों से बातें हों अठखेलियाँ हों 
पर मुँह से कुछ न बोलें 
ताकि अपना प्यारा दिवास्वप्न 
छिन्न भिन्न न करदें ज़माने वाले 
कहते है दीवारों के भी कान होते है 
कहीं कोई अफ़साना न बन जाए 
इसलिए चुप्पी साध ली है हमने 

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