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मंगलवार, 5 जनवरी 2016

फरेब खाते है





खुश रहने का भरम है सबको
लेकिन ख़ुशी कहीं नहीं मिलती
कहने को तो जिन्दा है लेकिन
जिंदगी कहीं नहीं मिलती
रोज़ ही हम फरेब खाते है

                  उम्मीदों के चिराग जलते है
                  रोशनी को  भी हम तरसते है
                  भूले भटके से तुम चले आओ
                  दीये  उम्मीद के ही जलते है
                  रोशनी का फरेब खाते है

यह बहकी हुई फ़िज़ा है उदास
इन बहारो की हर अदा है उदास
गुलशन को तो भा गई है खिज़ां
इसकी उजड़ी हुई खिज़ा है उदास
दिल के हर जख्म को छिपाते है

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