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बुधवार, 6 जनवरी 2016

तुलसी की रत्ना






वह मृदुल हास्य की रेखा 
अधरों में खेल रही थी 
तुलसी के आकुल उर में 
अनुराग उड़ेल रही थी 

               जग पड़ी अचानक रत्ना 
               दृग पटल उनींदे खोले 
               विषमय ,विषाद, मादकता 
               उन्माद हृदय में डोले 

कुछ स्नेह भाव से सिंचित 
कुछ जी में वो झुंझलाकर 
रत्ना ख उठी अचानक 
कुछ वचन मनोहर गुरुतर 

             यह "अस्थि चर्ममय पिंजर 
             उसमे यह प्रीत तुम्हारी 
             यदि होते तुम हरि सेवक 
             हो जाती जीत हमारी "

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