यह तंग ख्यालों की दुनिया
कब समझी दिल की बातों को
पिंज़रे में तड़पते पंछी की
आँख क्ति कुछ रातों को
अब चाह सिसक कर रोती है
जब साथ ही अपने छोड़ चले
दीवार ,दरीचे ,गुल ,बुलबुल
देकर हसरत मुँह मोड़ चले
चलने पर हमारे पाबंदी
और रुकना हमें मंज़ूर नहीं
इस जान की बाज़ी हाज़िर है
पर हार हमें मंज़ूर नहीं
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें