मै भी मानव हूँ जग का
तुमको बिसरा दूँ कैसे
कब पीर मिटी लहरों की
सरिता के तट से टकराकर
कब शलभों की प्रीत जली है
दीपशिखा के प्राण जलाकर
संवेदना के इन आंसू से
निज ज्वाल बुझा दूँ कैसे
एक वेदना से भूमि और
अंबर भी तड़पा करते है
एक बूँद के प्यासे चातक
गगन निहारा करते है
अपने मचले अरमानो को
मै आज सुला दूँ कैसे
यह मादक स्पर्श तुम्हारा
जब दिल पे मेरे लहराया
नई चेतना की किरणों ने
सोया अनुराग जगाया
आज जागरण की बेला में
सुधि का दीप बुझा दूँ कैसे
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