तुम चिर परिचित अनजान रहे
अन्तर के तार न मिल पाये
कल्पना मौन थी शब्दों में
उदगार नयन में भर आये
मूक रुदन इस अन्तर का
प्रिय तुम तक कैसे आ पाये
उच्छ्वास भरे स्वप्निल जग का
आभास तुम्हें क्या मिल पाए
अनभिज्ञ अकिंचन मै जग का
व्याकुल प्राणी मैने माना
पर उसकी अडिग भावना को
क्षण भर कब तुमने पहचाना
वरदान जिसे मै समझा था
वह शाप अरे क्यों बन जाए
जो अपना तुमको मान चुका
वह मन तुममें लय हो जाए
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