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रविवार, 14 फ़रवरी 2016

करलूँ मनमर्ज़ी



ये बादल गरजता है

बरसता क्यों नहीँ

चक्कर काटता रहता है

शोर मचाता है

सिर पर हथौडे सा वार करता है

दिल चीत्कार कर उठता है

ये शोर अब सहा नहीँ जाता

बादल की ही मर्ज़ी क्यों चले

मै भी क्यों प्यासे पेड़ की तरह जिऊँ

क्यों न पानी खींच लूँ

अपनी जड़ों द्वारा पाताल से

क्यों न ताकत मांग लूँ उससे

जो सबको ताकत देता है

फिर क्यों मै मोहताज़ रहूँ

उस बादल की

करलूँ मनमर्ज़ी 

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