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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

रात्रि का सन्नाटा



वो धीरे धीरे सर्द हवा में टहल रही थी 
लैम्प पोस्ट के नीचे बैंच पड़ी थी 
वहाँ एक पुस्तक अधखुली पड़ी थी 
मैने उस पुस्तक को छुआ 
उसकी पलकें मेरी ओर उठीं 
मैने रात्रि के अँधेरे में 
उसके मन की इबारत को पढ़ा 
वो मन ही मन डरी हुई 
सहमी सी थी 
वो संकुचित सी हुई 
निश्चेष्ट सी, निष्प्राण सी उसकी देह 
सर्द हवा में पत्ते सी कांप रही थी 
मैने उसे कंबल ओढ़ाया 
उसकी प्रतिछाया मुझे घूरने लगी 
मन ही मन मै घबराया सकुचाया 
चुपचाप वापिस चला आया 
अब केवल वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था 
नि ;शब्द निष्कलंक कोई झाँक रहा था 

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