रवि ने स्वर्ण लुटाया
ढलते दिन की थकती काया
साँझ का वैभव आया
दो क्षण को फिर जग का आँगन
कलरव से इठलाया
देख सकी कब रजनी उसको
मग में तिमिर बिछाया
सुख दुःख की धूप छाँव से
मन ही मन अकुलाया
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