यहाँ कबसे तू गुज़रा ही नहीं
कुछ चाँद के रथ भी गुज़रे थे
पर चाँद से तू उतरा ही नहीं
दिन रात के दोनों पहिये भी
कुछ धूल उड़ाकर गुज़र गए
मै आँगन में बैठी ही रही
चौखट से तू गुज़रा ही नहीं
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