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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

गुज़रा ही नहीं



मै कब से इस  राह में बैठी हूँ 
यहाँ कबसे तू गुज़रा ही नहीं 

                  कुछ चाँद के रथ भी गुज़रे थे 
                  पर चाँद से तू उतरा ही नहीं 

दिन रात के दोनों पहिये भी 
कुछ धूल उड़ाकर गुज़र गए 

                 मै आँगन में बैठी ही रही 
                चौखट से तू गुज़रा ही नहीं 


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