एक अपरिचित अनजाने से कितना मुझको मोह हो गया
गाँव छोड़के जाने वाले उसको क्या तुम जान सकोगे
पल दो पल ही साथ हुआ था किन्तु बन गया जीवन नाता
साथी बोलो उस नाते की गहराई पहचान सकोगे
जिस तरुवर के नीचे हमने अरमानों के फूल खिलाए
उस उजड़े तरुवर की पीड़ा थोड़ी भी अनुमान सकोगे
थके पंथ के पंछी जैसा आ ही जाऊँ द्वार तुम्हारे
क्या विश्वास कि कल का बिछुड़ा साथी मान सकोगे
कटे पंख के पंछी जैसा गिर ही जाऊँ गोद तुम्हारी
इसका क्या विश्वास कि मेरी मजबूरी पहचान सकोगे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें