यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 28 फ़रवरी 2016

अपरिचित


एक अपरिचित अनजाने से कितना मुझको मोह हो गया   
गाँव छोड़के जाने वाले उसको क्या तुम जान सकोगे

                  पल दो पल ही साथ हुआ था किन्तु बन गया जीवन नाता
                  साथी बोलो उस नाते की गहराई पहचान सकोगे

जिस तरुवर के नीचे हमने अरमानों के फूल खिलाए
उस उजड़े तरुवर की पीड़ा थोड़ी भी अनुमान सकोगे

                 थके पंथ के पंछी जैसा आ ही जाऊँ द्वार तुम्हारे
                 क्या विश्वास कि कल का बिछुड़ा साथी मान सकोगे

कटे पंख के पंछी जैसा गिर ही जाऊँ गोद तुम्हारी
इसका क्या विश्वास कि मेरी मजबूरी पहचान सकोगे


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें